नीतिज्ञान
भगवान ब्रह्माजी के तीसरे मानसपुत्र भृगु के पुत्र महर्षि शुक्राचार्य ने नीतियों में श्रेष्ठ नीतिशास्त्र को कहा, जिसे भगवान ब्रह्मा ने लोकहितार्थ पूर्व में ही शुक्राचार्य से कहा था। इस 'शुक्रनीति' के वचन प्रत्येक जटिल परिस्थिति में सुपथ दिखाने वाले, समाज को एक नयी दिशा प्रदान करने वाले हैं।
गुरुजनों के तथा राजा के आगे उनसे ऊँचे आसन पर या पैर के ऊपर पैर रखकर नहीं बैठना चाहिए और उनके वाक्यों का तर्क द्वारा खण्डन नहीं करना चाहिए। दान, मान और सेवा से अत्यंतत पूज्यों की सदा पूजा करें।
किसी भी प्रकार से सूर्य की ओर देर तक न देखें। सिर पर बहुत भारी बोझ लेकर न चलें। इसी प्रकार अत्यंत सूक्ष्म, अत्यंत चमकीली, अपवित्र और अप्रिय वस्तुओं को देर तक नहीं देखना चाहिए।
मल-मूत्रादि वेगों को रोके हुए किसी कार्य को करने में प्रवृत्त न हो और उक्त वेगों को बलपूर्वक न रोके।
परस्पर बातचीत करते हुए दो व्यक्तियों के बीच में से नहीं निकलना चाहिए।
गुरुजन, बलवान, रोगी, शव, राजा, माननीय व्यक्ति, व्रतशील और यान (सवारी) पर जाने वाले के लिए स्वयं हटकर मार्ग दे देना चाहिए।
परस्त्री की कामना करने वाले बहुत से मनुष्य संसार में नष्ट हो गये, जिनमें इन्द्र, दण्डक्य, नहुष, रावण आदि के उदाहरण प्रसिद्ध हैं।
महान ऐश्वर्य प्राप्त करके भी पुत्र को पिता की आज्ञा के अनुसार ही चलना चाहिए क्योंकि पुत्र के लिए पिता की आज्ञा का पालन करना परम भूषण है। (शुक्रनीतिः 2.37.38)
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